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43 साल की सलाखों के पीछे, 104 की उम्र में मिली आजादी: लखन को हाईकोर्ट ने किया बरी | Ujala News Uk)

(43 sal kee slakhon ke peechhe 104 kee umr men milee aajadee lkhn ko haeekort ne kiya bree)
Posted by G D BHAGAT
Posted Date: 2025-05-28 13:47:31
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43 साल की सलाखों के पीछे, 104 की उम्र में मिली आजादी: लखन को हाईकोर्ट ने किया बरी

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43 साल की सलाखों के पीछे, 104 की उम्र में मिली आजादी: लखन को हाईकोर्ट ने किया बरी

By: G D BHAGAT

Senior Editor, UjalaNewsUK


कौशांबी - कौशांबी, उत्तर प्रदेश - न्याय में देरी अन्याय है, और इस कहावत को साकार करता है कौशांबी के 104 वर्षीय लखन का जीवन। 43 साल तक जेल की सलाखों के पीछे निर्दोष रहने के बाद, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया। 2 मई, 2025 को हाईकोर्ट ने सबूतों की कमी के आधार पर लखन को बाइज्जत बरी किया, जिसने उनके परिवार को सुकून दिया। अब लखन अपनी बेटी आशा के ससुराल में शरीरा थाना क्षेत्र में रह रहे हैं, लेकिन उनकी यह कहानी न्यायिक व्यवस्था में सुधार और मुआवजे की मांग को जोरदार ढंग से उठाती है।

लंबी कानूनी लड़ाई की शुरुआत



लखन की यह दुखद यात्रा 1977 में शुरू हुई, जब उन्हें कौशांबी के गौराए गांव में एक हत्या और हत्या के प्रयास के मामले में गिरफ्तार किया गया। 1982 में प्रयागराज जिला एवं सत्र न्यायालय ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। इस फैसले के खिलाफ लखन ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की, लेकिन न्याय की राह इतनी लंबी थी कि इसमें 43 साल लग गए। इस दौरान लखन ने प्रयागराज की नैनी जेल और कौशांबी की मंझनपुर जेल में सजा काटी। उनकी यह लड़ाई न केवल उनके लिए, बल्कि उनके परिवार के लिए भी कष्टदायक रही।

हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला



2 मई, 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले की गहन समीक्षा की और पाया कि लखन के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं थे। अदालत ने उन्हें बाइज्जत बरी करने का आदेश दिया। जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए), कौशांबी की सक्रियता और अपर जिला जज पूर्णिमा प्रांजल के नेतृत्व में लखन की रिहाई सुनिश्चित की गई। 20 मई, 2025 को लखन को कौशांबी जिला जेल से रिहा कर उनकी बेटी के ससुराल पहुंचाया गया। यह फैसला लखन के परिवार के लिए एक नई उम्मीद लेकर आया, लेकिन साथ ही यह सवाल भी उठाया कि इतने लंबे समय तक निर्दोष को सजा क्यों भुगतनी पड़ी?

बेटी आशा की भावुक प्रतिक्रिया



लखन की बेटी आशा ने इस फैसले पर भावुक होकर कहा कि 43 साल तक उनके परिवार ने सामाजिक और भावनात्मक कलंक झेला। उन्होंने बताया कि उनके पिता अब संतुष्ट हैं और कहते हैं कि वे अब चैन से मर सकेंगे। आशा ने जिला विधिक सेवा प्राधिकरण और जेल प्रशासन का आभार व्यक्त किया, जिन्होंने लखन की रिहाई और सुरक्षित घर पहुंचाने में सहयोग किया। हालांकि, आशा ने यह भी सवाल उठाया कि क्या उनके पिता को इस अन्याय के लिए मुआवजा मिलेगा?

लखन की शारीरिक स्थिति: देखभाल की आवश्यकता



104 साल की उम्र में लखन अब शारीरिक रूप से कमजोर हो चुके हैं। वे चलने-फिरने में असमर्थ हैं और दैनिक कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। उनकी बेटी आशा ने बताया कि लखन को लगातार पैर में दर्द रहता है और उन्हें बिना सहायता के खड़े होने में है। जेल में लंबे समय तक रहने के कारण उनकी सेहत पर गहरा असर पड़ा है। परिवार अब उनकी देखभाल के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है, लेकिन उनकी उम्र और स्वास्थ्य स्थिति को देखते हुए चिकित्सा सहायता और मुआवजे की मांग और जरूरी हो गई है।

न्यायिक देरी का दुखद पहलू



लखन का मामला भारतीय न्यायिक व्यवस्था में लंबित मामलों की गंभीर समस्या को उजागर करता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में लाखों केस हैं, और लखन की अपील को सुनने में 43 साल लग गए। जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की सचिव पूर्णिमा प्रांजल ने बताया कि रिहाई में देरी का कारण रिहाई परवाना का समय पर जेल न पहुंचना था। इस देरी ने लखन को 20 दिन और जेल में रहने के लिए मजबूर किया। यह घटना न्यायिक प्रक्रिया में सुधार की तत्काल आवश्यकता को दर्शाती है।

मुआवजे की मांग और सामाजिक प्रतिक्रिया



लखन की रिहाई के बाद, सोशल मीडिया पर उनकी कहानी ने लोगों का ध्यान खींचा। कई लोगों ने न्यायिक व्यवस्था पर सवाल उठाए और लखन के लिए मुआवजे की मांग की। कौशांबी के स्थानीय निवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मामले को फास्ट-ट्रैक अदालतों की जरूरत से जोड़ा, ताकि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों। लखन की कहानी ने पूरे देश में न्याय में देरी के मुद्दे पर बहस छेड़ दी है। लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार लखन को उनके खोए हुए 43 साल के लिए कोई मुआवजा देगी?

जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की भूमिका



जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, कौशांबी ने इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लीगल एडवाइजर अंकित मौर्य और जेल अधीक्षक अजितेश कुमार ने लखन की रिहाई को संभव बनाया। पूर्णिमा प्रांजल ने बताया कि हाईकोर्ट के आदेश के बाद त्वरित कार्रवाई की गई। प्राधिकरण ने न केवल रिहाई सुनिश्चित की, बल्कि लखन को उनकी बेटी के घर सुरक्षित पहुंचाने की जिम्मेदारी भी निभाई। इस प्रयास ने कानूनी सहायता की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया।

फास्ट-ट्रैक अदालतों की जरूरत



लखन का मामला फास्ट-ट्रैक अदालतों की आवश्यकता को और मजबूत करता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में 11 लाख से अधिक केस लंबित हैं, जिसके कारण निर्दोष लोगों को भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है। न्यायिक सुधार और जजों की नियुक्ति में तेजी लाने की मांग अब और जोर पकड़ रही है। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि निर्दोष लोग बिना वजह सजा न भुगतें।

लखन की कहानी: एक प्रेरणा और सबक



लखन की कहानी एक ओर न्याय की जीत है, तो दूसरी ओर न्यायिक व्यवस्था की कमियों का दर्पण। उनकी बेटी आशा और परिवार ने 43 साल तक हार नहीं मानी। लखन ने कहा कि उन्होंने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी। यह कहानी उन सभी के लिए प्रेरणा है जो न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। साथ ही, यह सरकार और समाज के लिए एक सबक है कि निर्दोषों को समय पर न्याय मिलना चाहिए।

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